उत्तर प्रदेश

पीएम की रैली में NDA की ताकत देख लिखी जाएगी महागठबंधन की पटकथा

राजधानी के ऐतिहासिक गांधी मैदान में कांग्रेस की जन आकांक्षा रैली से ठीक एक महीने बाद तीन मार्च को राजग की संकल्प रैली होने वाली है। लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहली आमसभा होने जा रही है, जिसमें राजग के सभी घटक दल अपनी एकता और ताकत का संयुक्त इजहार करेंगे।

मंच की साज-सज्जा और बैठने की व्यवस्था भी उसी लिहाज से की जा रही है, जिसमें सबके मान-सम्मान की झलक दिख सके। चुनाव के गिने-चुने दिन होने के कारण रैली के बहाने राजग की ताकत की महागठबंधन से तुलना स्वाभाविक होगी।

भाजपा-जदयू और लोजपा के खिलाफ बिहार में बने महागठबंधन ने अभी तक कोई संयुक्त चुनावी रैली नहीं की है। कांग्रेस ने बिहार में 28 वर्षों के बाद तीन फरवरी को गांधी मैदान में रैली का आयोजन जरूर किया था, जिसमें घटक दलों को मित्र नहीं, बल्कि मेहमान के रूप में बुलाया गया था।

राजद, रालोसपा, हम, वामदलों एवं वीआईपी के प्रमुख नेताओं की मौजूदगी में कांग्र्रेस ने सिर्फ अपनी ही आकांक्षा का प्रदर्शन किया था। लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटों की दावेदारी कर रही कांग्र्रेस को दूसरी तरफ से भी कुछ ऐसा ही संकेत दिया गया था।

तेजस्वी ने भी इशारों में ही साफ कर दिया था कि राजद अपनी हैसियत से समझौता नहीं करने वाला है। राहुल को संकेतों में समझाने की कोशिश की गई थी कि कांग्र्रेस बेशक बड़ा दल है, किंतु साथी दलों के सम्मान का भी उसे ख्याल करना पड़ेगा।

मंच पर भी दिखी थी दूरी

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी में महागठबंधन के साथी दलों की भी अभिव्यक्ति और अपेक्षा को तरजीह नहीं दी गई थी। यहां तक कि बिहार के सबसे बड़े दल राजद के प्रमुख नेता तेजस्वी यादव की कुर्सी भी मंच पर राहुल से थोड़ी दूर लगाई गई थी।

तेजस्वी और राहुल के बीच में कांग्रेस के तीन नए मुख्यमंत्री राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) के लिए जगह बनाई गई थी। सभा को संबोधित करने का क्रम भी उसी हिसाब से था। मतलब तेजस्वी यादव और शरद यादव जैसे बड़े नेताओं से ज्यादा कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को तरजीह दी गई थी। जीतनराम मांझी भी अन्यमनस्क जैसा दिखे थे और मुकेश सहनी ने तो बोलना भी मुनासिब नहीं समझा था।

नौ साल बाद नमो के साथ नीतीश 

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार पटना में रविवार को नौ साल बाद एक साथ किसी चुनावी रैली में दिखेंगे। इसके पहले 14वीं लोकसभा चुनाव के दौरान 10 मई 2010 को लुधियाना में दोनों ने मंच शेयर किया था। उसके बाद से ही दोनों के राजनीतिक रिश्ते कभी इतने मधुर नहीं रहे कि मंच पर भाजपा और जदयू की एकता का प्रदर्शन किया जा सके।

जून 2013 में तो दोनों दलों के रास्ते ही अलग हो गए। एक दौर तो ऐसा भी आया कि नीतीश राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरे। बिहार में भाजपा की लहर को बेअसर करते हुए उन्होंने लालू के साथ महागठबंधन बनाकर विधानसभा चुनाव में लोकसभा में मिली भाजपा की कामयाबी को धूमिल कर दिया। अबकी दोनों नौ साल बाद साथ आए हैं तो सफलता की संभावनाओं को भी उसी नजरिए से देखा जा रहा है।

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