दिल्ली एनसीआर

मुबारक हो ‘शाह’, पढ़िए- देश के इस ऐतिहासिक स्थल के नामकरण की दिलचस्प कहानी

दिल्ली की सड़कों पर चलते वक्त आकस्मिक ही आपके गाम ठहर जाते होंगे न, किन्हीं पुराने सी दर-ओ-दीवारों को देखकर, आखिर क्या छिपा है, लेकिन खामोश और शांत खड़ी दीवारें…धूल से लिपटी धरोहर आपसे कुछ कह नहीं पाती होगी न ही आप सुन पाते होंगे। अलहदा से दिखती इन्हीं धरोहर में है मुबारकपुर कोटला। जहां चौड़ी सड़कें, जो बगले झांकती है वाहनों की पार्किंग की वजह से। आड़े-तिरछे यहां-वहां खड़े वाहन। इस कोलाहल में भी माहौल कुछ शांत सा है। यहां से मुख्य मार्ग से होकर कॉलोनी में प्रवेश करते ही सड़कें संकरी हो जाती हैं एवं बिजली के लटकते तार और गलियों में खेलते बच्चे दिखते हैं। यहीं मकानों के झुंड में सुल्तान मुबारक शाह का मकबरा दिखता है। जो हर दोपहर आबाद हो जाता है स्थानीय लोगों की चहल-पहल से। कोई ताश खेलने पहुंच जाता है, तो कोई बैठकी के मकसद से। मुबारकपुर नाम क्यों पड़ा इसकी कई कहानियां यहां प्रचलित हैं। मुबारकशाह के मकबरे के नाम पर स्थानीय इलाका कब मुबारकशाह से मुबारकपुर में बदल गया यह जानना बहुत ही दिलचस्प है। हालांकि नाम को लेकर कई अन्य कहानियां भी प्रचलित हैं। यहां सिर्फ मुबारकशाह का मकबरा ही नहीं अपितु मुबारकपुर कोटला मस्जिद, मोठ की मस्जिद, बड़े खान का गुंबद, छोटे खान का गुंबद, काले खां का गुंबद, दरया खां मकबरा तो हैं ही जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के अंदर भी कई एतिहासिक निशानियां हैं जो न केवल इतिहासकारों बल्कि आम लोगों को इतिहास की कहानियां सुनाती हैं। कहानियां, जो बंद है किताबों के पन्नों में।

सिर्फ एक यही निशानी

सुल्तान मुबारक शाह, जिसने 1421 से 1433 तक शासन किया। मुबारक शाह के पिता खिज्र खां ने मृत्यु शैय्या पर अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था, उसकी मृत्यु के दिन ही दिल्ली के सरदारों की सहमति से मुबारक शाह दिल्ली के राज सिंहासन पर बैठा। उसी के शासन-काल में यहिया बिन अहमद सरहिन्दी ने अपनी तारीखे-मुबारकशाही लिखी, जो इस काल के इतिहास की जानकारी के लिए अमूल्य है। इतिहासकार कहते हैं कि मुबारकशाह का शासन-काल भी, उसके पिता के शासनकाल की तरह ही, घटना-शून्य तथा उदासी से भरा है। उपद्रवों का शमन करने के अभिप्राय से दंड देने वाले कुछ आक्रमणों के अतिरिक्त, जिनमें सुल्तान को विवश होकर अपनी सेना के साथ जाना पड़ा, कुछ भी वर्णन करने योग्य महत्व की बात नहीं है। हां, उसने 31 अक्टूबर, 1432 को यमुना नदी के किनारे एक शहर की नींव डाली। परिस्थितियां ऐसी बनीं कि इसका नाम बीमार शगुन पड़ गया। यह शहर था मुबारकाबाद। हालांकि सुल्तान शहर के हर भवन को बनाने में जी जान से जुटा था। लेकिन 19 फरवरी, 1434 ई. को यमुना के किनारे मुबारकाबाद नामक एक नए आयोजित नगर के निर्माण के निरीक्षण के लिए जाते समय सुल्तान, असन्तुष्ट वजीर सखरुलमुल्क के नेतृत्व में वह एक सुनियोजित षड्यंत्र का शिकार बन गया एवं इसकी हत्या कर दी गई। इसे मुबारकपुर में ही दफनाया गया। मकबरा बहुत ही भव्य है। मकबरे के चारों तरफ एक गैलरी है। प्रवेश पर कमल बना हुआ है जो कि सुल्तान मोहम्मद शाह सैयद मकबरा लोदी गार्डन के समानांतर दिखता है। कैरन स्टीफंस ने इस मकबरे के बारे में सन् 1876 में लिखा था मकबरा चारों तरफ से 24 पिलर से जुड़ा है। गुंबद इसके खूबसूरत लाल पत्थर से बने हैं। हालांकि वर्तमान में इसके चारों तरफ कई इमारत बन चुकी हैं, जिसकी वजह से यह मकबरा छिप सा गया है। राना सफवी अपनी पुस्तक द फॉरगटन सिटी आफ दिल्ली में लिखती हैं कि उन्हें एक स्थानीय निवासी ने बताया कि यह मकबरा उपराज्यपाल जगमोहन मलहोत्रा के हस्तक्षेप के बाद स्थानीय लोगों को मिला था। दरअसल, लोगों ने पत्र लिखकर इसे स्थानीय लोगों के लिए खोलने की गुजारिश की थी।

मुश्किल ही पहुंच पाएंगे मुबारकपुर कोटला मस्जिद

सुल्तान मुबारक शाह के मकबरे से चंद कदम की दूरी पर मुबारकपुर कोटला मस्जिद है। हालांकि यहां तक पहुंचने के रास्ते पर कई घर बन चुके हैं। इलाके से कम वाकिफ या पहली दफा यहां घूमने आने वाला शख्स मस्जिद तक बड़ी ही मुश्किल से पहुंच सकत है। रानी सफवी का भी अनुभव कुछ ऐसा ही रहा, कहती हैं कि हम तो कूड़े के ढे़र पर चढ़कर बरामदे में कूदे। यहां परिसर में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। यही नहीं यहां एक कुत्ता भी था जो हमें देखते ही भौंकने लगा। वो हमें अंदर नहीं आने दे रहा था। मस्जिद में पांच मेहराबदारों एवं तीन गुंबद है। हालांकि अतिक्रमण नया नहीं है। सन् 1919 में ही यहां अतिक्रमण हो गया था। बशीरुद्दीन अहमद ने अपनी किताब में लिखा है कि मानिकचंद बक्कल, जिसका मकान पास में ही है। मानिकचंद इसे अपनी प्रॉपर्टी समझता है।

बड़े खान-छोटे खान-भूरे खान

जैसे ही साउथ एक्स-पार्ट-1 की चकौचौंध और रिहाइश से बाहर निकल कर आगे बढ़ते हैं तो आगे कोटला मुबारकपुर पड़ता है ठीक इसी के पास में यह तीनों गुंबद स्थित हैं। बड़े खान एवं छोटे खान तो एक-दूसरे के आसपास ही हैं। इतिहासकार राना सफवी कहती हैं कि ये नाम किसी व्यक्ति विशेष से जुड़े प्रतीत नहीं होते हैं। ऐसा लगता है कि गुंबद की ऊंचाई के आधार पर किसी ने इनका नामकरण कर दिया हो। ये गुंबद लोदी काल के प्रतीत होते हैं। तीनों ही गुंबद पर बेहतरीन कैलीग्राफी की गई है। बकौल एएसआइ अधिकारी अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि यहां पर किसे दफनाया गया है। एक गलियारे के जरिए तीनों गुंबद जुड़े हुए हैं। बड़े खान गुंबद में पांच कब्र हैं। इतिहासकार सर सैयद इसे लोदी काल का मानते हुए इसका निर्माण 1494 में सिकंदर लोदी के कार्यकाल के दौरान का बताते हैं। सफवी बताती हैं कि एक बार जब वो यहां गईं तो सर्दी के दिन थे, महिलाएं बैठी धूप सेक रही थीं। पूछने पर एक महिला ने बताया कि वो विगत कई सालों से खासकर सर्दियों में यहां धूप सेकने आती हैं। काले खां का गुंबद : स्थानीय लोगों की मानें तो इसके बारे में ठीक से पता नहीं है। एएसआइ के संरक्षण से पहले यह ब्लैक दिखता था लिहाजा लोगों ने काले खां का गुंबद कहकर बुलाना शुरू कर दिया। चार मुख्य दरवाजों के साथ दो छोटे दरवाजे हैं। इसके अंदर दो कब्र हैं। इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि यह संभवत: दरिया खां लोहानी के पिता मुबारक खां लोहानी का मकबरा है। जो यहीं पास ही दफन किए गए हैं।

मोठ की दाल…मस्जिद

यह मस्जिद मुबारकपुर गांव के बीच स्थित है। खुलासत-उल-तारीख में मोठ की मस्जिद के बारे में एक दिलचस्प कहानी बताई गई है। मोठ की मस्जिद या मस्जिद मोठ जिसका वस्तुत: अर्थ ‘दाल मस्जिद’ है। इसे 1505 में वजीर मियां भोइया ने बनवाया था, जो सुल्तान सिकंदर लोदी के शासनकाल में प्रधानमंत्री थे। कहते हैं एक बार सिकंदर लोदी को एक दाल का दाना मिला। उन्होंने यह दाना अपने बुद्धिमान मंत्री मियां भोइया को दे दिया। मिनिस्टर ने सोचा कि यह उसके लिए सौभाग्य की बात है कि राजा ने अपने हाथ से उसे दाल का दाना दिया है। इसकी हिफाजत वह इस तरह करेगा कि राजा की प्रसिद्धि बढ़े। लिहाजा, उसने अपने आवास से सटे बगीचे में दाल बो दिया। यह दाना बड़ा होकर पौध बना एवं फिर उन दानों को भी जमीन में बो दिया। मंत्री यह प्रक्रिया तब तक करता रहा जब तक की कृषि के लिए पर्याप्त बीज नहीं मिल गए। बाद में उसने पूरे खेत में यह बीज बोए एवं इनको बेचने से प्राप्त पैसों से मस्जिद का निर्माण कराया। बाद में उसने सुल्तान को पूरी कहानी सुनाई एवं मस्जिद में प्रार्थना के लिए बुलाया। जिसके बाद यह मोठ की मस्जिद नाम से ही प्रसिद्ध हो गई। लाल पत्थरों से बनी इस मस्जिद में जालीदार नक्काशी वाली खिड़कियां, अष्टकोणीय स्मारक, एक छोटा अर्ध वृत्ताकार गुंबद, खुले मेहराब एवं दो मंजिला बुर्ज हैं। फूलों की अद्भुत एवं जटिल नक्काशियां बेहद आकर्षक हैं। दिल्ली की अधिकतर ऐतिहासिक इस्लामिक इमारतें लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित हैं। अन्य पारंपरिक मस्जिदों की तरह इसमें कोई भी मीनार, सजावटी सुलेखन या अलंकरण नहीं है।

Related Articles

Back to top button