करोड़ों रुपये खर्च और नतीजा अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं। उत्तराखंड में कुछ ऐसी ही है पौधरोपण की तस्वीर। पिछले दो सालों के आंकड़ों पर ही गौर करें तो राज्य सेक्टर से बहुद्देश्यीय पौधरोपण एवं वनों के संरक्षण पर वन विभाग ने 4.28 करोड़ की धनराशि खर्च की। इस अवधि में 350 लाख से अधिक पौधे भी प्रदेशभर में रोपने का दावा किया गया। इनमें से आज कितने जीवित हैं, यह प्रश्न अनुत्तरित है।
सूरतेहाल सवाल उठना लाजिमी है कि कहीं पौधरोपण सिर्फ बजट खपानेभर तक तो सीमित नहीं है। पौधरोपण के तहत प्रदेश में हर साल ही गांव-शहर से लेकर जंगलों तक बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रजातियों के पौधे रोपे जाते हैं। बावजूद इसके, देखरेख के अभाव में इनमें से आधे भी जीवित नहीं रह पाते।
वन विभाग के पौधरोपण की सूरत भी इससे जुदा नहीं है। एक बार पौधे रोपने और फिर प्लांटेशन की ओर नजरें फेर लेने की परिपाटी के कारण ये प्रयास धरातल पर ठीक से आकार नहीं ले पा रहे हैं।
सूचना अधिकार के तहत मिली जानकारी पर ही गौर करें तो पिछले दो वर्षों में राज्यभर में 355 लाख पौधे रोपे गए। इस अवधि में पौधरोपण के लिए राज्य सेक्टर के तहत बहुद्देश्यीय पौधरोपण एवं वनों के संरक्षण मद में 4.28 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई। बावजूद इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए।
मानक के अनुसार कहीं भी 80-90 फीसद पौधे जीवित नहीं हैं। कुछेक जगह तो प्लांटेशन का नामोनिशान तक नहीं है। ऐसी ही स्थिति इससे पहले के वर्षों में हुए पौधरोपण की भी है। ऐसे में पौधरोपण को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
हालांकि, पौधों के जीवित रहने की दर सिमटने के पीछे देखभाल को पर्याप्त बजट न मिलने, जंगली जानवरों व मवेशियों द्वारा पौधों को क्षति पहुंचाने, भूस्खलन व वनाग्नि जैसे तमाम कारण गिनाए जाते हैं, लेकिन हकीकत ये है कि एक बार पौधे लगाने के बाद उनकी तरफ झांकने तक की जरूरत नहीं समझी जाती। परिणामस्वरूप पौधरोपण के अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे।