किलर ट्रीः 1857 में सैकड़ों भारतीयों को इसी पेड़ पर टांगकर मारा था अंग्रेजों ने…
खामोशी से खड़ा हूं…फिर भी आपको तकलीफ है…। आरियां मेरी रूह पर चलाकर मेरा क्या बिगाड़ लोगे अपने ही स्वच्छ-सुंदर भविष्य की कुछ सांसे जरूर उखाड़ लोगे…। हांफ रहे हो प्रदूषण के दंश से फिर भी हरियाली का सीना कचौटे जा रहे हो…। बख्श लो इन पेड़ों को वर्ना कल हवा और सांस उधार लेने अस्पताल में जाओगे। विकास की रेस में हरियाली को बचाए रखने की जंग जारी है…। ऐसे में अपने शहर के आंगन में कुछ ऐसे बुजुर्ग पेड़ हैं जो 100 बरस के जीवन के बाद भी छांव दे रहे हैं और किस्से कहानियों को भी अपनी शाखाओं और दरख्तों में सिमेटे हैं। दिल्ली में एक ऐसा पेड़ भी है जिसकी शाखों पर लटकाकर हिंदुस्तानियाों को 1857 में फांसी लगाई गई थी।
तने पर जीवित है बलिदान
चांदनी चौक स्थित शीशगंज गुरुद्वारे को गुरु तेग बहादुर के शहादत स्थल के रूप में पहली बार स्थापना वर्ष 1783 में जाना गया था। शीशगंज गुरुद्वारा दिल्ली के सबसे महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक गुरुद्वारों में से एक है। इस धार्मिक स्थान की वर्तमान संरचना वर्ष 1930 में निर्मित कराई गई थी। इसमें एक विशाल हॉल भी समायोजित है, जिसके ठीक केंद्र में एक पीतल का मंडप बना है, जिसमें सिखों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब रखी हुई है। गुरु तेग बहादुर को जिस वृक्ष के नीचे शहादत दी गई थी, उस वृक्ष का तना आज भी इस गुरुद्वारे के अंदर संरक्षित है।
द किलर ट्री की यादें
इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि लाल किले में दीवाने आम के पास एक पेड़ था, जिसे किलर ट्री कहते थे। दरअसल, 1857 में अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों को इस पेड़ पर टांगकर मारा था। यह पेड़ करीब 30 साल पहले एक आंधी में गिर गया। इस पेड़ को मैंने भी देखा था। इसी तरह कोटला में एक बरगद का पेड़ है, जो सैकड़ों साल पुराना है। इस पेड़ के नीचे एक साथ 50 से ज्यादा लोग बैठकर आराम करते थे। वहीं प्रदीप कृष्णन अपनी पुस्तक दिल्ली ट्री में कहते हैं कि ‘महरौली में दिल्ली का सबसे पुराना पेड़ खिरनी का है। यह पेड़ करीब 500 साल पुराना है।’
पेड़ों को नहीं काटा जाना चाहिए
मखमली पत्तियों की वो छूअन, शाखाओं पर बैठकर खेलकूद, फलों को तोड़ने के वो जतन। छांव के नीचे बैठकर घंटों धमाचौकड़ी करता बचपन भले ही जिंदगी के सफर में आगे बढ़ता चला जा रहा है लेकिन वृक्षों से जुड़ी यादें जेहन में ताउम्र अपनी एक जगह बनाए रखती हैं। पेड़ों का हमसे सिर्फ ऑक्सीजन देने तक संबंध सीमित थोड़ी ही है बल्कि ये तो हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक रीति रिवाजों में भी गहराई से गुंथे हैं। तभी तो दक्षिणी दिल्ली में जैसे ही 16,500 पेड़ कटने की सूचना मिली तो लोग दौड़ पड़े। कोई इनकी जड़ों के पास बैठ गया तो कोई शाखाओं से लिपट रोने लगा। हर आंख नम हो गई। सभी एक ही स्वर…पेड़ों को नहीं काटा जाना चाहिए। इसे अगर कैफी आजमी के शब्दों में समझें तो…‘पेड़ को काटने वालों को ये मालूम तो था जिस्म जल जाएंगे, जब सर पे ना साया होगा।’
धर्म के सथ आजादी भी
जब आप बदरपुर, यानी दिल्ली-हरियाणा की सीमा के पास से गुजरेंगे तो वहां अरावली की पहाड़ियों में स्थित गुरुकुल इंद्रप्रस्थ में 102 साल से ज्यादा पुराना बरगद का पेड़ है। इतिहास की जड़ों में जाएंगे तो पता चलता है कि इसके नीचे बैठ कर ही संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद तपस्या किया करते थे। संचालक आचार्य ऋषिपाल कहते हैं कि महर्षि श्रद्धानंद सरस्वती ने 24 दिसंबर 1916 को गुरुकुल इंद्रप्रस्थ की स्थापना की थी। वे यहां स्थापना से दो वर्ष पहले आए थे। गुरुकुल की गुफा में देश के सच्चे सिपाही नेताजी सुभाष चंद्र बोस आठ दिनों तक भूमिगत रहे थे। इनके अलावा राम प्रसाद बिस्मिल, शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद यहां आकर रणनीति बनाया करते थे। आजादी के आंदोलन के दौरान ही महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय तथा जयप्रकाश नारायण का आना हुआ था। ये सभी लोग जब इस पेड़ के नीचे आकर बैठा करते थे।
अंग्रेजों की कायरता…फिर भी आस्था
दिल्ली से जब आप मेरठ जाएंगे रास्ते में मोदीनगर पड़ता है। जहां नवरात्र के दिनों में देवी का बहुत बड़ा मेला भी लगा लगता है। उसी महामाया देवी मंदिर परिसर में वटवक्ष है जो अपनी मजबूत और फैलावदार जड़ो से बयां करता है कि उम्र अब सैंकड़ों बरस हो चुकी है। जानकार बताते हैं कि यहां 1857 में सैकड़ों निर्दोष ग्रामीणों को फांसी पर लटकाया गया था। माता की तरह वटवृक्ष में भी लोगों की अटूट आस्था है। माता के दर्शन के बाद लोग वटवृक्ष पर धागा बांधकर मन्नत मांगना नहीं भूलते। सीकरी खुर्द गांव निवासी वृद्ध प्रकाशवीर सिंह बताते हैं कि 1857 में अंग्रेजों ने इस पेड़ पर लटकाकर सैकड़ों निर्दोष ग्रामीणों को फांसी दी थी। बुजुर्ग बताते हैं कि ग्रामीण अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की योजना बना रहे थे। जिसकी सूचना मुखबिर ने अंग्रेजों को दे दी थी। इसी के दंड स्वरूप अंग्रेजों ने ग्रामीणों को फांसी पर लटकाया था।
पीपल के नीचे लगती थी चौपाल
एनएच-09 (पूर्व में एनएच-24) अब तो दिल्ली से यूपी गेट तक बहुत आराम से बगैर कहीं जाम में फंसे आवागमन हो जाता है। यूपी गेट से चार किलोमीटर आगे चलेंगे तो इंदिरापुरम आएगा जहां मकनपुर गांव स्थित है। ये गांव मुगलों के समय से है। इसी गांव के 85 वर्षीय रतनलाल बताते हैं कि मकनपुर गांव के बीचों-बीच लगा
पीपल का पेड़ करीब 300 साल से भी पुराना है। एक जमाना था जब पीपल के इस पेड़ पर मोर, कोयल, कौए और बुलबुल सुबह से लेकर देर शाम तक चहचहाते रहते थे। सन् 1961 में यहां के प्राचीन स्कूल में मुख्त्यार नाम के मास्टर के द्वारा गांव की जनगणना की गई थी तो उस वक्त 1365 लोगों की गिनती हुई थी उस वक्त यह इकलौता पेड़ था जो सबसे पुराना हुआ करता था।