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बिहार

बिहार में लोकसभा की 40 सीटों पर घमासान तय, सियासी चाल चलने लगीं पार्टियां

बिहार की राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर महत्व है। यहां लोकसभा की 40 सीटें हैं, जो सियासी दलों की किस्मत तय करने में सक्षम हैं। जनता का फैसला पक्ष में आ गया तो राजयोग और नहीं तो सत्ता से वियोग संभव है। पिछली बार राजग को 31 सीटें नसीब हुई थीं। शेष नौ में पूरे विपक्ष की हिस्सेदारी थी। अबकी फिर घमासान के आसार हैं।कांग्रेस की प्रारंभिक राज्य सरकारें और जेपी आंदोलन के बाद बिहार की राजनीति का दम घुटने लगा था। प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद कुछ हद तक कर्पूरी ठाकुर का कद ही राष्ट्रीय स्तर का हो पाया था। किंतु 90 के दशक में बिहार की राजनीति की पहचान में जबर्दस्त उछाल आया।  23 अक्टूबर 1990 को रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करके लालू ने भाजपा से स्थायी दुश्मनी ले ली। इसी मोड़ से लालू धर्मनिरपेक्षता के हीरो बन गए। जनता दल में जैसे-जैसे लालू का कद बढ़ता गया, दूसरे नेता घुटन महसूस करने लगे। इनमें शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार प्रमुख थे।  नीतीश और जॉर्ज ने 1994 में लालू से किनारा कर लिया और अलग समता पार्टी बना ली थी। हालांकि, शरद यादव फिर भी लालू के साथ बने रहे, लेकिन 1997 में चारा घोटाले में नाम आते ही लालू ने नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बनाकर अपनी राह के अवरोधों को दूर करने की कोशिश की। जब बिहार में राजग की सरकार बनी तो नीतीश कुमार का कद भी बड़ी तेजी से बढ़ा और राष्ट्रीय स्तर पर बिहार को तरजीह मिलने लगी।   गठबंधन की राजनीति  अपने दम-खम पर सरकार बनाने-चलाने में जब क्षेत्रीय पार्टियां असहज महसूस करने लगीं तो बिहार में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुई। 1995 के विधानसभा चुनाव में बिहार की प्रमुख पार्टियों ने बिना गठबंधन के किस्मत आजमाई। तब के प्रमुख दलों में जनता दल, कांग्रेस, समता और भाजपा ने अलग-अलग प्रत्याशी उतारे। कांग्रेस को मुस्लिम और दलितों से उम्मीद थी। जॉर्ज और नीतीश पिछड़ी जातियों के सहारे थे। भाजपा को राम लहर पर विश्वास था, किंतु लालू ने माय (यादव और मुस्लिम) समीकरण के सहारे मैदान मार लिया। हालात का अहसास करके अगले चुनाव के लिए भाजपा के साथ जॉर्ज-नीतीश के नेतृत्व वाली समता पार्टी (अब जदयू) ने हाथ मिला लिया। बाद में शरद यादव ने भी जनता दल से रिश्ते खत्म करके केंद्र की भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया। 2003 में समता पार्टी का विलय जदयू में हो गया और नीतीश प्रखर नेता के रूप में उभरे।  भाजपा-जदयू की दोस्ती  दोनों दलों की दोस्ती रास आती रही है। जब-जब भाजपा-जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा, उनका वोट प्रतिशत बढ़ा। दोनों दलों के गठबंधन को अगड़ों के साथ पिछड़ी जातियों का समर्थन भी मिला। जब वे अलग लड़े तो दोनों में से कोई न कोई पस्त हो गया। 2014 में भाजपा से अलग होने के कारण जदयू को करारा झटका लगा। अबकी दोनों फिर साथ हैं।  1989 की राम लहर में भी भाजपा अकेले लड़कर बिहार में महज तीन सीटें ही जीत सकी थी और 1991 में जीरो पर आउट हो गई। अहसास हुआ तो 1996 में भाजपा-समता ने मिलकर मोर्चा संभाला तो छह सीटें मिलीं। महज दो साल बाद 1998 के चुनाव में इस गठबंधन की संख्या आठ तक पहुंच गई।  1999 के आम चुनाव में जब दोनों दलों के गठबंधन ने मिलकर लड़ा तो सीटों की बाढ़ आ गई। भाजपा को 40 संसदीय सीटों में से 12 और जदयू को 17 सीटें मिलीं। अकेले लडऩे वाला राजद की संख्या छह पर पहुंच गई। 2004 में राजद-कांग्र्रेस और लोजपा की तिकड़ी ने भाजपा-जदयू को हाशिये पर धकेल दिया। दोनों को सिर्फ 11 सीटें ही मिल सकीं। 2009 के आम चुनाव में भाजपा-जदयू की दोस्ती फिर बुलंदी पर पहुंच गई। भाजपा को 12 और जदयू को 20 सीटों पर जीत मिली।  प्रतिद्वंद्वी भी हो चुके हैं कामयाब  दूसरे पक्ष को भी गठबंधन की मजबूती भाती रही है। 2002 में गोधरा कांड के बाद रामविलास पासवान ने राजग सरकार से नाता तोड़ लिया था। 2004 के आम चुनाव में लालू-कांग्रेस-पासवान ने एक होकर राजग को चुनौती दी और बिहार की 29 सीटों पर कामयाब हुए। राजद को 22, पासवान को चार और कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं। तीनों दलों का गठबंधन इतना मजबूत था कि भाजपा को महज पांच और जदयू को छह सीटों से संतोष करना पड़ा।  हालांकि, दोस्ती टिक नहीं सकी और आठ महीने बाद पासवान ने रास्ते अलग कर लिए। लिहाजा 2005 अक्टूबर के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा को सत्ता में आने और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक सके। 2014 में मोदी लहर की बात अगर छोड़ दी जाए तो 2009 के संसदीय चुनाव में भी कांग्रेस-राजद को बंटकर लडऩे का खामियाजा भुगतना पड़ा।  लोकसभा चुनाव 2014 के हीरो  क्षेत्र : विजेता : पार्टी  1. वाल्मीकि नगर : सतीशचंद्र दुबे : भाजपा  2. प. चंपारण : डा. संजय जायसवाल : भाजपा  3. पूर्वी चंपारण : राधामोहन सिंह : भाजपा  4. शिवहर : रामा देवी : भाजपा :  5. सीतामढ़ी : राम कुमार शर्मा :  6. मधुबनी : हुकुमदेव नारायण यादव : भाजपा  7. झंझारपुर : बीरेन्द्र कुमार चौधरी : भाजपा  8. सुपौल : रंजीत रंजन : कांग्रेस  9. अररिया : तस्लीमुद्दीन : राजद  10. किशनगंज : अशरारुल हक  11. कटिहार : तारीक अनवर : राकांपा  12. पूर्णिया : संतोष कुमार : जदयू  13. मधेपुरा : पप्पू यादव     : राजद  14. दरभंगा : कीर्ति आजाद : भाजपा  15. मुजफ्फरपुर : अजय निषाद : भाजपा  16. वैशाली : रामाकिशोर सिंह : लोजपा  17. गोपालगंज सुरक्षित : जनक राम : भाजपा  18. सिवान : ओम प्रकाश यादव : भाजपा  19. महाराजगंज : जनार्दन सिग्रिवाल : भाजपा  20. सारण : राजीव प्रताप रुढी : भाजपा  21. हाजीपुर सुरक्षित : रामविलास पासवान  22 उजियारपुर : नित्यानंद राय : भाजपा  23 समस्तीपुर सुरक्षित : रामचंद्र पासवान : लोजपा  24. बेगूसराय     : भोला सिंह : भाजपा  25. खगडिय़ा : चौधरी महबूब अली कैसर : लोजपा  26. भागलपुर : बुलो मंडल : राजद  27. बांका : जय प्रकाश नारायण यादव : राजद  28. मुंगेर : वीणा देवी : लोजपा  29. नालंदा : कौशलेंद्र कुमार : जदयू  30. पटना साहिब : शत्रुघ्न सिन्हा : भाजपा  31. पाटलीपुत्र : रामकृपाल यादव : भाजपा  32. आरा : राज कुमार सिंह : भाजपा  33. बक्सर : अश्विनी चौबे : भाजपा  34. सासाराम सुरक्षित : छेदी पासवान : भाजपा  35. काराकाट : उपेंद्र कुशवाहा : रालोसपा  36. जहानाबाद : अरुण कुमार : रालोसपा  37. औरंगाबाद : सुशील कुमार सिंह : भाजपा  38. गया सुरक्षित : हरी मांझी : भाजपा  39. नवादा : गिरिराज सिंह : भाजपा  40. जमुई सुरक्षित : चिराग पासवान : लोजपा  दलों का हाल  पार्टी : 2014 : 2009 : 2004  भाजपा : 22 : 12 : 2 :  जदयू : 2 : 20 : 6  राजद : 4 : 4 : 22  कांग्र्रेस : 2 : 2 : 3

सभी पार्टियों में ‘करो या मरो’ के हालात

चुनावी साल में प्रवेश करते ही सभी प्रमुख पार्टियों में ‘करो या मरो’ के हालात हैं। खुद के विस्तार और दूसरे के वजूद पर प्रहार की कवायद है। सियासी गतिविधियां और सरगर्मियां बढ़ गई हैं। दलों में चहल-पहल है और दिग्गजों के दिलों में स्पंदन है। मिलने-बिछडऩे और दोस्ती-दुश्मनी की परिभाषा ताजा संदर्भों और नए अर्थों में गढ़ी जाने लगी है। दिल्ली वालों की भी बिहार पर नजरे-इनायत होने लगी है।

यूपी के बाद बिहार का सर्वाधिक महत्‍व

लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दृष्टिकोण से 80 सीटों वाले यूपी के बाद सबसे ज्यादा रणनीतिक महत्व बिहार का है, क्योंकि यहां से चुनावी लहर भी पैदा होती है, जो पूरे देश की राजनीति को दिशा देती है। किसी दल के आगे-पीछे होने का मतलब व्यापक हो जाता है।

दोनों तरफ वोटों का गुणा-भाग जारी

फिलहाल उपचुनाव की चार सीटों के नतीजों के बाद से राजद उत्साहित है, किंतु भाजपा विरोधी गठबंधन का बिहार में नेतृत्व करने वाले तेजस्वी यादव को 70 फीसद मुस्लिम आबादी वाली अररिया संसदीय और जोकीहाट विधानसभा सीटों पर जीत के मायने बेहतर पता है। उन्हें यह भी अहसास है कि राजद की वर्तमान ताकत जीत के लिए नाकाफी है। शायद यही कारण है कि वह अपने वोट बैंक का दायरा बढ़ाने में जुटे हैं।भाजपा के लिए भी सबक है कि ध्रुवीकरण की कोशिश अक्सर कामयाब नहीं होती है। कभी-कभार मतदाता भी अपनी मर्जी चलाते हैं। जहानाबाद विधानसभा सीट पर तमाम कोशिशों के बावजूद जदयू प्रत्याशी को उनके स्वजातीय वोटरों ने ही खारिज कर दिया था। ऐसे में दोनों तरफ वोटों का गुणा-भाग जारी है। तोड़-फोड़ और जोड़ करके गठबंधनों को बचाने-बढ़ाने की कोशिश की जा रही है।

कांग्रेस की प्रारंभिक राज्य सरकारें और जेपी आंदोलन के बाद बिहार की राजनीति का दम घुटने लगा था। प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद कुछ हद तक कर्पूरी ठाकुर का कद ही राष्ट्रीय स्तर का हो पाया था। किंतु 90 के दशक में बिहार की राजनीति की पहचान में जबर्दस्त उछाल आया।

23 अक्टूबर 1990 को रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करके लालू ने भाजपा से स्थायी दुश्मनी ले ली। इसी मोड़ से लालू धर्मनिरपेक्षता के हीरो बन गए। जनता दल में जैसे-जैसे लालू का कद बढ़ता गया, दूसरे नेता घुटन महसूस करने लगे। इनमें शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार प्रमुख थे।

नीतीश और जॉर्ज ने 1994 में लालू से किनारा कर लिया और अलग समता पार्टी बना ली थी। हालांकि, शरद यादव फिर भी लालू के साथ बने रहे, लेकिन 1997 में चारा घोटाले में नाम आते ही लालू ने नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बनाकर अपनी राह के अवरोधों को दूर करने की कोशिश की। जब बिहार में राजग की सरकार बनी तो नीतीश कुमार का कद भी बड़ी तेजी से बढ़ा और राष्ट्रीय स्तर पर बिहार को तरजीह मिलने लगी।

गठबंधन की राजनीति

अपने दम-खम पर सरकार बनाने-चलाने में जब क्षेत्रीय पार्टियां असहज महसूस करने लगीं तो बिहार में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुई। 1995 के विधानसभा चुनाव में बिहार की प्रमुख पार्टियों ने बिना गठबंधन के किस्मत आजमाई। तब के प्रमुख दलों में जनता दल, कांग्रेस, समता और भाजपा ने अलग-अलग प्रत्याशी उतारे। कांग्रेस को मुस्लिम और दलितों से उम्मीद थी। जॉर्ज और नीतीश पिछड़ी जातियों के सहारे थे। भाजपा को राम लहर पर विश्वास था, किंतु लालू ने माय (यादव और मुस्लिम) समीकरण के सहारे मैदान मार लिया। हालात का अहसास करके अगले चुनाव के लिए भाजपा के साथ जॉर्ज-नीतीश के नेतृत्व वाली समता पार्टी (अब जदयू) ने हाथ मिला लिया। बाद में शरद यादव ने भी जनता दल से रिश्ते खत्म करके केंद्र की भाजपा सरकार को समर्थन दे दिया। 2003 में समता पार्टी का विलय जदयू में हो गया और नीतीश प्रखर नेता के रूप में उभरे।

भाजपा-जदयू की दोस्ती

दोनों दलों की दोस्ती रास आती रही है। जब-जब भाजपा-जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा, उनका वोट प्रतिशत बढ़ा। दोनों दलों के गठबंधन को अगड़ों के साथ पिछड़ी जातियों का समर्थन भी मिला। जब वे अलग लड़े तो दोनों में से कोई न कोई पस्त हो गया। 2014 में भाजपा से अलग होने के कारण जदयू को करारा झटका लगा। अबकी दोनों फिर साथ हैं।

1989 की राम लहर में भी भाजपा अकेले लड़कर बिहार में महज तीन सीटें ही जीत सकी थी और 1991 में जीरो पर आउट हो गई। अहसास हुआ तो 1996 में भाजपा-समता ने मिलकर मोर्चा संभाला तो छह सीटें मिलीं। महज दो साल बाद 1998 के चुनाव में इस गठबंधन की संख्या आठ तक पहुंच गई।

1999 के आम चुनाव में जब दोनों दलों के गठबंधन ने मिलकर लड़ा तो सीटों की बाढ़ आ गई। भाजपा को 40 संसदीय सीटों में से 12 और जदयू को 17 सीटें मिलीं। अकेले लडऩे वाला राजद की संख्या छह पर पहुंच गई। 2004 में राजद-कांग्र्रेस और लोजपा की तिकड़ी ने भाजपा-जदयू को हाशिये पर धकेल दिया। दोनों को सिर्फ 11 सीटें ही मिल सकीं। 2009 के आम चुनाव में भाजपा-जदयू की दोस्ती फिर बुलंदी पर पहुंच गई। भाजपा को 12 और जदयू को 20 सीटों पर जीत मिली।

प्रतिद्वंद्वी भी हो चुके हैं कामयाब

दूसरे पक्ष को भी गठबंधन की मजबूती भाती रही है। 2002 में गोधरा कांड के बाद रामविलास पासवान ने राजग सरकार से नाता तोड़ लिया था। 2004 के आम चुनाव में लालू-कांग्रेस-पासवान ने एक होकर राजग को चुनौती दी और बिहार की 29 सीटों पर कामयाब हुए। राजद को 22, पासवान को चार और कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं। तीनों दलों का गठबंधन इतना मजबूत था कि भाजपा को महज पांच और जदयू को छह सीटों से संतोष करना पड़ा।

हालांकि, दोस्ती टिक नहीं सकी और आठ महीने बाद पासवान ने रास्ते अलग कर लिए। लिहाजा 2005 अक्टूबर के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा को सत्ता में आने और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक सके। 2014 में मोदी लहर की बात अगर छोड़ दी जाए तो 2009 के संसदीय चुनाव में भी कांग्रेस-राजद को बंटकर लडऩे का खामियाजा भुगतना पड़ा।

लोकसभा चुनाव 2014 के हीरो

क्षेत्र : विजेता : पार्टी

1. वाल्मीकि नगर : सतीशचंद्र दुबे : भाजपा

2. प. चंपारण : डा. संजय जायसवाल : भाजपा

3. पूर्वी चंपारण : राधामोहन सिंह : भाजपा

4. शिवहर : रामा देवी : भाजपा :

5. सीतामढ़ी : राम कुमार शर्मा :

6. मधुबनी : हुकुमदेव नारायण यादव : भाजपा

7. झंझारपुर : बीरेन्द्र कुमार चौधरी : भाजपा

8. सुपौल : रंजीत रंजन : कांग्रेस

9. अररिया : तस्लीमुद्दीन : राजद

10. किशनगंज : अशरारुल हक

11. कटिहार : तारीक अनवर : राकांपा

12. पूर्णिया : संतोष कुमार : जदयू

13. मधेपुरा : पप्पू यादव     : राजद

14. दरभंगा : कीर्ति आजाद : भाजपा

15. मुजफ्फरपुर : अजय निषाद : भाजपा

16. वैशाली : रामाकिशोर सिंह : लोजपा

17. गोपालगंज सुरक्षित : जनक राम : भाजपा

18. सिवान : ओम प्रकाश यादव : भाजपा

19. महाराजगंज : जनार्दन सिग्रिवाल : भाजपा

20. सारण : राजीव प्रताप रुढी : भाजपा

21. हाजीपुर सुरक्षित : रामविलास पासवान

22 उजियारपुर : नित्यानंद राय : भाजपा

23 समस्तीपुर सुरक्षित : रामचंद्र पासवान : लोजपा

24. बेगूसराय     : भोला सिंह : भाजपा

25. खगडिय़ा : चौधरी महबूब अली कैसर : लोजपा

26. भागलपुर : बुलो मंडल : राजद

27. बांका : जय प्रकाश नारायण यादव : राजद

28. मुंगेर : वीणा देवी : लोजपा

29. नालंदा : कौशलेंद्र कुमार : जदयू

30. पटना साहिब : शत्रुघ्न सिन्हा : भाजपा

31. पाटलीपुत्र : रामकृपाल यादव : भाजपा

32. आरा : राज कुमार सिंह : भाजपा

33. बक्सर : अश्विनी चौबे : भाजपा

34. सासाराम सुरक्षित : छेदी पासवान : भाजपा

35. काराकाट : उपेंद्र कुशवाहा : रालोसपा

36. जहानाबाद : अरुण कुमार : रालोसपा

37. औरंगाबाद : सुशील कुमार सिंह : भाजपा

38. गया सुरक्षित : हरी मांझी : भाजपा

39. नवादा : गिरिराज सिंह : भाजपा

40. जमुई सुरक्षित : चिराग पासवान : लोजपा

दलों का हाल

पार्टी : 2014 : 2009 : 2004

भाजपा : 22 : 12 : 2 :

जदयू : 2 : 20 : 6

राजद : 4 : 4 : 22

कांग्र्रेस : 2 : 2 : 3

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