बिहार

बिहार में सुस्‍त रही CBI की चाल, अधिकांश मामलों में नाकामी ही लगी हाथ

देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) की कार्यक्षमता, प्रभाव, अहमियत और छवि अलग-अलग सियासी दलों के चश्मे से भले ही लोगों को अलग-अलग दिखती हो, लेकिन बिहार के संदर्भ में सीबीआइ की छवि यही बनी है कि इसने जिस जांच को हाथ में लिया, उसमें बहुत कुछ नहीं कर पाई। चारा घोटाला की बात कुछ और थी। मुजफ्फरपुर के बालिका गृह यौन उत्पीडऩ कांड को लेकर न केवल बिहार की बल्कि पूरे देश की निगाह एकबार फिर सीबीआइ पर है। डर इस बात का है कि देश की यह प्रीमियम जांच एजेंसी अपना पुराना ट्रैक रिकॉर्ड न दुहरा दे।

सुप्रीम कोई ने कहा था: पिंजरे में बंद तोता
सुप्रीम कोर्ट ने बहुचर्चित कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले की निष्पक्ष जांच को लेकर इस प्रीमियर जांच एजेंसी को ‘पिंजरे में बंद तोते’ की संज्ञा दी थी, तब विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने कोर्ट की टिप्पणी को भी राजनीतिक मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तब कोर्ट ने यह भी कहा था कि यह तोता सिर्फ अपने मालिक की बात सुनता है। कोर्ट ने मालिक शब्द का प्रयोग किस संदर्भ में किया होगा, इसकी विवेचना की जरूरत नहीं है।

विफलताओं का भी लंबा इतिहास
हाल के वर्षों में सीबीआइ को बिहार से कई बड़े आपराधिक मामलों की जांच का जिम्मा दिया गया। इनमें अजीत सरकार हत्याकांड, बृजबिहारी प्रसाद हत्याकांड और मधुसूदन सिंह उर्फ बुटन सिंह हत्याकांड जैसे मामले भी शामिल हैं। सीबीआइ ने इन मामलों में जिन राजनीतिक हस्तियों के खिलाफ जांच की उनके खिलाफ कोई ऐसा साक्ष्य कोर्ट को उपलब्ध नहीं करा सकी, जिससे उन्हें अदालत में गुनहगार ठहराया जा सके।

बिहार से जुड़े बड़े आपराधिक कांडों की जांच में सीबीआइ की विफलता की कहानी यहीं तक सीमित नहीं है। पिछले 10 वर्षों में बिहार सरकार की तरफ से सीबीआइ को एक-दो नहीं बल्कि कुल दस ऐसे मामलों की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई है, जो बिहार की राजनीति और जनमानस को आज भी प्रभावित कर रहे हैं। वर्ष 2012 में प्रतिबंधित रणवीर सेना के सुप्रीमो बरमेश्‍वर मुखिया हत्याकांड, वर्ष 2012 में ही मुजफ्फरपुर में 10वीं की छात्रा नवरुणा की रहस्यमयी गुमशुदगी और फिर उसकी हत्या का मामला और सिवान में वर्ष 2016 में पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड। इन सभी मामलों में विपक्ष के दबाव या फिर कोर्ट के निर्देश पर मामले की जांच सीबीआइ को तो सौंप दी गई थी। पर साल दर साल बीतने के बावजूद इन कांडों की जांच भले ही जारी रही परंतु अभियुक्तों के गिरेबां तक देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के हाथ नहीं पहुंच पाए। और न ही इन मामलों से जुड़े अभियुक्तों को सलाखों के पीछे ढकेलने काम पूरा हो सका।

नवरुणा हत्याकांड
18 सितंबर, 2012 को मुजफ्फरपुर के जवाहर लाल रोड से एक 14 वर्षीया दसवीं की छात्रा देर रात अपने घर से लापता पाई जाती है। परिजनों ने पहले उसकी गुमशुदगी और फिर अपहरण का मामला थाने में दर्ज कराया। बाद में नवरुणा के पिता अतुल चक्रवर्ती द्वारा अपनी नाबालिग बेटी की तलाश हेतु सीबीआइ जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई गई। तब सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2014 में इस मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी। जांच शुरू करने के करीब चार साल बाद भी सीबीआइ इस मामले में न तो चार्जशीट दायर कर सकी है और न अभियुक्तों की पहचान ही सुनिश्चित हो सकी। 

विगत अप्रैल में सीबीआइ ने जिन छह अभियुक्तों को गिरफ्तार कर जेल भेजा था, उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल न होने के कारण सभी को कोर्ट ने जमानत पर रिहा करने का आदेश जारी कर दिया।

मधुसूदन सिंह उर्फ बुटन सिंह हत्याकांड
वर्ष 2000 में पूर्णिया कोर्ट परिसर में जदयू नेता मधुसूदन सिंह उर्फ बुटन सिंह की हत्या कर दी गई थी। इस हत्याकांड में आपराधिक छवि वाले कई नेताओं के नाम सामने आए थे। राजनीतिक दबाव में मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी गई। लेकिन 18 साल बाद भी मामले का खुलासा नहीं हो सका। सीबीआइ की मानें तो इस मामले की जांच अभी भी जारी है।

आकाश पांडेय अपहरणकांड
राजधानी पटना के शास्त्रीनगर थानाक्षेत्र से 10 अगस्त, 2007 को डीएवी स्कूल के छात्र आकाश पांडेय का अपहरण कर लिया गया था। इस अपहरण कांड की जांच में जब बिहार पुलिस किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी तो हाइकोर्ट के आदेश पर मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी गई। लेकिन, आकाश के अपहरण के आज 11 साल बीत चुके हैं। इस मामले में सीबीआइ न तो आकाश पांडेय को ढूंढ निकालने में सफल रही और न ही उसके अपहरणकर्ताओं का ही कोई सुराग मिल सका। इस मामले में सीबीआइ एक भी गिरफ्तारी नहीं कर सकी।

राहुल गौतम हत्याकांड
राजधानी पटना के बहुचर्चित राहुल गौतम हत्याकांड में भी सीबीआइ के हाथ खाली हैं। राहुल गौतम पटना हाइकोर्ट के अधिवक्ता का पुत्र था। उसकी हत्या के बाद सरकार ने पटना हाइकोर्ट के निर्देश पर मामले की जांच वर्ष 2012 में सीबीआइ को सौंपी थी। लेकिन, पिछले छह साल में न तो किसी अभियुक्त की गिरफ्तारी हुई और न ही इस हत्याकांड के उद्देश्यों का ही पता चल सका।

संतोष टेकरीवाल हत्याकांड
10 जुलाई को राजधानी पटना के ट्रांसपोर्ट नगर थानाक्षेत्र में व्यवसायी संतोष टेकरीवाल की हत्या कर दी गई थी। राज्य सरकार ने इस हत्याकांड की सीबीआइ जांच की अनुशंसा की। सीबीआइ ने पहले जांच की जिम्मेदारी लेने से इनकार किया। इसके पीछे अपने कार्य की अधिकता को वजह बताया। कोर्ट के निर्देश पर सीबीआइ ने मामले की जांच की जिम्मेदारी तो ली, लेकिन जांच एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी।

बरमेश्‍वर मुखिया हत्याकांड
1 जून, 2012 की अहले सुबह आरा के नवादा क्षेत्र के कतिरा मोहल्ले में अज्ञात हमलावरों ने बरमेश्‍वर मुखिया को गोलियों से छलनी कर दिया। हत्या के बाद आरा से लेकर पटना की सड़कों तक पर बवाल हुआ। राजनीतिक दबाव में सरकार ने मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी। सीबीआइ ने अपनी जांच भी शुरू कर दी। मामले की जांच की जिम्मेदारी लेने के पांच साल बीत जाने के बाद आज भी इस हत्याकांड का रहस्य वहीं का वहीं खड़ा है।

जमुई मूर्ति चोरी मामला
वर्ष 2015 में जमुई से भगवान महावीर की प्राचीन मूर्ति चोरी हो गई थी। मामले की जांच सरकार ने सीबीआइ के एंटिक सेल को सौंप दी। लेकिन सीबीआइ की रफ्तार से अधिक तेज बिहार पुलिस निकली और उसने अपने दम पर भगवान महावीर की मूर्ति को ढूंढ निकाला।

राजदेव रंजन हत्याकांड
पत्रकार राजदेव रंजन हत्याकांड का मामला भी सीबीआइ को सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से सौंपा गया था। हालांकि, इस मामले की आरंभिक जांच में सीबीआइ ने तेजी दिखाई और एक के बाद एक कई अभियुक्तों को गिरफ्तार भी किया। यहां तक कि राजद के पूर्व बाहुबली सांसद मो. शहाबुद्दीन और उनके कई गुर्गों की भी शिनाख्त की गई। मामले में चार्जशीट भी दाखिल की जा चुकी है। लेकिन सीबीआइ हत्या के कारणों का अबतक पता लगाने में विफल रही है।

भागलपुर का बहुचर्चित सृजन घोटाला
पिछले साल जब भागलपुर का सृजन घोटाले का मामला राज्य सरकार के संज्ञान में आया तब सरकार ने मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दी। सीबीआइ द्वारा जांच की कमान अपने हाथों में लेने के बावजूद घोटाले का किंगपिन अमित कुमार और उसकी पत्नी रजनी प्रिया आज भी सीबीआइ की पकड़ से दूर हैं। 

हिस्से कई बड़ी उपलब्धियां भी

ऐसा नहीं कि सीबीआइ को केवल नाकामी ही मिली है। तमाम राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोपों और आलोचनाओं के बावजूद इस जांच एजेंसी के हिस्से कई बड़ी उपलब्धियां भी हैं। चाहे वह बिहार की राजनीति को लगातार कई दशकों तक प्रभावित करने वाले बहुचर्चित चारा घोटाले का ही मामला क्यों न हो। सीबीआइ ने इस घोटाले में शामिल राजनीतिक रसूख वाले नेताओं को भी सलाखों के पीछे पहुंचा दिया। 
लेकिन, यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि क्या मुजफ्फरपुर बालिका गृह यौन उत्पीडऩ और भागलपुर के बहुचर्चित सृजन घोटाले को अंजाम देने वाले रसूखदारों को सीबीआइ उनके किए की सजा दिला पाएगी, या फिर इन मामलों का भी वही हश्र होगा जो आजादी से पहले बिहार प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष अब्दुल बारी और केंद्रीय रेलमंत्री ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड का हो चुका है।

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