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डिंडौरी प्रसंस्करण से कोदो-कुटकी की कीमत 15 गुना तक बढ़ गई

 कोदो-कुटकी के स्टार्टअप से रोजगार की नई राह खुल गई है। प्रदेश के सबसे बड़े कृषि विश्वविद्यालय की विकसित मशीनरी से आदिवासी स्व-सहायता समूह द्वारा उत्पादित कोदो-कुटकी को मॉल तक पहुंचा रहे हैं। जिस कोदो-कुटकी की कीमत 20 रुपए भी नहीं मिलती थी, अब वो 100 से 200 रुपये किलो बिक रही है। आदिवासियों को समूह बनाकर उद्योग लगाने के लिए ट्रेंंड किया जा रहा है। इसमें यूनिट लगाने से लेकर मार्केट लिंकेज कके बारे में सिखाया जा रहा है। कोदो-कुटकी के कई प्रोडक्ट भी तैयार हो रहे हैं। युवा इससे जुड़े स्टार्टअप से भविष्य बना रहे हैं। कृषि विज्ञान केंद्र डिंडौरी के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. हरीश दीक्षित ने बताया कि कोदो-कुटकी पर आधारित उद्योग आदिवासी किसानों के लिए आफलाइन बन रहा है। इससे किसानों की आय कई गुना बढ़ रही है। कोदो-कुटकी का जैविक उत्पादन होता है। यहां की लाल पथरीली मिट्टी में इसे उगाया जाता है। इसमें आर्गेनिक के अलावा कोई खाद नहीं डाल सकते। जवाहरलाल नेहरु कृषि विवि ने कोदो-कुटकी की मिलिंग, ग्रेडिंग व चावल निकालने की टेक्नीक डेवलप की है। इसे बाद इसकी मशीनरी तैयारी हुई। अब आदिवासी जिलों मंडला-डिंडौरी में कोदो-कुटकी उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। स्व-सहायता समूह बनकार इसके उद्योग लगाने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है। कोदो-कुटकी को प्रसंस्करण करने के बाद मार्केट में लिंकेज किया गया। इसके कई टू र्स प्रोडक्ट विकसित किए गए हैं। अब सीधे आदिवासी किसान के खेत से इसे मॉल तक पहुंचाया दिया गया है। आदिवासी क्षेत्र में ये सफल उद्योग के रूप में तेजी से बढ़ रहा है। इस उद्योग से महिलाओं को लाभ हो रहा है। इसकी मशीनरी लागत क्षमता के अनुसार पांच से 12 लाख रुपये के बीच आती है। एक महीने के प्रशिक्षण में उत्पादन से लेकरी बाजार मार्केट लिंकेज तक की जानकारी दी जाती है। प्रशिक्षण की व्यवस्था जबलपुर कृषि विवि में खाद्य एवं प्रसंस्करण विभाग के साथ ही कृषि विज्ञान केंद्र मंडला व डिंडौरी में उपलब्ध है। किसान के खेत से आए कोदो-कुटकी को क्लीनर कम ग्रेडर मशीन की मदद से साफ कर ग्रेडिंग कर लेते हैं। इसमें विभिन्न ग्रेड का दाना अलग-अलग कर लेते हैं। फिर मिलिंग के लिए पॉलिशर मशीन में डालते हैं। कोदो की सात परतें होती हैं। इसे हटाते हैं। इसके बाद इसे चावल बनाने वाली मशीन में डालते हैं। जहां चावल निकलता है। फिर इसकी पैकिंग कर मार्केट में बेचते हैं। आदिवासी किसानों के खेत में पैदा हुआ कोदो 20 रुपए में खरीदर कर व्यापारी जबलपुर लाते हैं। भाड़े के बाद इसकी कीमत 25 रुपए प्रति किलो हो जाती है। इसके बाद इसकी मिलिंग होती है। 60 प्रतिशत रिकवरी होती है। मिलिंग के बाद इसकी कीमत लागत और लाभ मिलाकर 75 रुपए हो जाती है। इसके बाद इसके पैकेट में पैक कर मार्केट में बेचा जाता है। पर जब आदिवासी किसान खुद ट्रेंड हो जाएंगे, तो वे सीधे पैक कर मार्केट में बेच सकेंगे। इसका लाभ भी उनको होगा। कोदो के चावल शुगर फ्री होते हैं। इसकी खीर बहुत स्वादिष्ट बनती है। ये सूखारोधी फसल है। इसमें चावल की तुलना में 12 गुना अधिक कैल्शियम होता है। इसके दाने में 8.3 प्रश्तिात प्रोटीन और 1.4 प्रतिशत वसा और 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है। इससे बिस्किट, खिचड़ी, टिक्की, चॉकलेट आदि तैयार किया जा रहे हैं। केक आदि भी तैयार किए जा रहे हैं।

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