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नीतीश बीजेपी से खफा तो हो सकते हैं, लेकिन जुदा नहीं

बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार ने 26 जून को मुंबई में इलाज करा रहे राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से फोन पर बात की. इसके पहले वे कुछ दिन से लगातार मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं. वे अब तक नोटबंदी, किसानों के लिए फसल बीमा योजना, सड़क बनाए जाने के दावे जैसी केंद्र सरकार की योजनाओं की सार्वजनिक आलोचना कर चुके हैं. बीजेपी के सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार का अचानक उमड़ा लालू प्रेम और बीजेपी पर बरस रहा निंदारस, 2019 लोकसभा चुनाव से पहले कयासों को जन्म दे रहा है. लोकसभा में बिहार से 40 सीटें आती हैं और अब सबके दिमाग में यही सवाल है कि बिहार की ये सीटें किस तरफ जाएंगीं.

 
चौंकाने वाले फैसले लेने के माहिर
सवाल यह उठ रहा है कि अगर नीतीश बीजेपी के साथ चुनाव लड़ते हैं तो बिहार में क्या होगा और अगर नीतीश बीजेपी से अलग होते हैं तो अकेले मैदान में उतरेंगे या आरजेडी के साथ. नीतीश इन तीन में से कोई भी फैसला ले सकते हैं, क्योंकि बड़े फैसले लेने में उनका कोई सानी नहीं है. यह नीतीश कुमार ही हैं, जिन्होंने प्रचंड मोदी लहर शुरू होने के समय 2013 में बीजेपी का साथ छोड़ दिया था. यही नहीं अपनी जमीन मजबूत करने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री का पद भी छोड़ दिया और जीतनराम मांझी को कुर्सी पर बैठाकर खुद जनता के बीच चले गए. वे 2014 में अकेले लड़े और बुरी तरह हारे. सालभर के भीतर उन्होंने फिर एक बड़ा फैसला किया और लालू से गठबंधन कर लिया. प्रचंड जीत मिली और वे बिहार के सीएम बन गए. दो साल बाद उन्होंने एक और बड़ा कदम उठाया और एक झटके में महागठबंधन से बाहर आकर बीजेपी के साथ सरकार बना ली. वहीं नीतीश अब एक बार फिर कुलबुला रहे हैं. चुनाव सामने है. ऐसे में वे क्या करें. क्योंकि उन्हें डर है कि यह लोकसभा चुनाव उनका कद छोटा न कर जाए.

 
बीजेपी का साथ छोड़ा तो बढ़ जाएगी मुश्किल
अगर बीजेपी पर नीतीश की टिप्पणियों को गंभीरता से लिया जाए तो एक संभावना उनके बीजेपी का साथ छोड़ने की हो सकती है. लेकिन साथ छोड़कर अगर वे अकेले चुनाव लड़ेंगे तो क्या पाएंगे. लोकसभा चुनाव में अकेले लड़कर नीतीश को 16 फीसदी वोट और 2 लोकसभा सीट मिली थीं. 2015 में महागठबंधन में रहकर उन्हें 70 से अधिक विधानसभा सीट मिलीं, लेकिन वोट 16 फीसदी के करीब ही मिले.
अगर वे अलग होते हैं तो उन्हें यह वोट बचाना भी मुश्किल हो जाएगा. वे जिस तरह से बीजेपी के साथ गए हैं, वैसे में बिहार के 17 फीसदी मुसलमान वोटरों में से कितने उनके साथ आएंगे, कहना मुश्किल है. जातिगत वोट बैंक के नाम पर उनके पास कुर्मी, कोइरी और धानुक जैसी जातियों का पांच छह फीसदी वोट है. बाकी वोट उनकी छवि के आधार पर मिलता है, लेकिन वो छवि तो इस आयाराम गयाराम में खासी कमजोर पड़ जाएगी. अकेले लड़ना उनके लिए बहुत ही जोखिम भरा हो सकता है.

 
राजद में जाएंगे तो कदर नहीं होगी
सूत्रों की मानें तो 26 जून को लालू से फोन पर बातचीत से पहले एक बार और नीतीश की लालू से बात हो चुकी है. इन बातचीजों के राजनैतिक मायने तो निकाले ही जाएंगे. लेकिन जिस तरह से लालू के उत्तराधिकारी तेजस्वी ने कहा कि नीतीश को चार महीने बाद लालू जी की तबीयत पूछने का समय मिला, लालू की तबीयत पूछने वाले वे आखिरी नेता होंगे. तेजस्वी ने नीचा दिखाने वाले शब्दों में कहा है कि नीतीश कुमार के लिए आरजेडी के दरवाजे बंद हैं. उनसे कोई गठबंधन नहीं हो सकता.

 

राजनीति में इस तरह के बयानों का कोई स्थायी मतलब नहीं होता, लेकिन इतना मतलब तो होता ही है कि अगर नीतीश लालू के साथ आए तो इस बार वे तेजस्वी के चाचा नहीं बन पाएंगे. तेजस्वी उन्हें नंबर दो की जगह ही देंगे. क्या नीतीश यह बरदाश्त कर पाएंगे.

 
बीजेपी से मोलभाव ही आखिरी रास्ता
ऐसे में नीतीश मंझे हुए खिलाड़ी की तरह काम कर रहे हैं. उनके निंदारस का असल मकसद बीजेपी पर दबाव बढ़ाने का हो सकता है. पिछली बार के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और सहयोगियों को बिहार की 40 में से 32 सीटें मिल गई थीं. नीतीश जानते हैं कि इन 40 में से 20 सीटें अकेले जेडीयू को मिलना बहुत कठिन है. इसलिए उन्होंने अभी से दबाव की रणनीति शुरू कर दी है. बीजेपी के राज्य नेतृत्व को भी इस बात का अंदाजा है, इसलिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से कह दिया कि वे पिछली बार जीती सारी सीटों पर चुनाव लड़ेगे.

यानी दोनों पार्टियों ने पतंगबाजी शुरू कर दी है. बीजेपी सूत्रों की मानें तो पार्टी शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद की दो सीटों को काटकर चल रही है. बीजेपी का कहना है कि इस तरह उसके पास 20 सीटें बचेंगीं और बाकी 20 सीटों पर नीतीश और पासवान आपस में समझौता कर लें. यहां बीजेपी इस संभावना को भी साथ लेकर चल रही है कि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा आखिरी समय में एनडीए से किनारा कर जाएं तो बड़ी बात नहीं होगी. ऐसे में कुशवाहा की पार्टी के कोटे की सीटें भी नीतीश को दी जा सकती हैं. कुशवाहा भी उन नेताओं में हैं जो लालू यादव की मिजाजपुर्सी करने एम्स गए थे.
कुल मिलाकर गणित बहुत उलझा है, लेकिन यह आखिरी विकल्प ही नीतीश के लिए सबसे व्याहारिक दिखाई पड़ता है. वैसे नीतीश ने अगर एक बार फिर कोई बड़ा फैसला लेने की ठान ली हो, तो उन्हें कौन रोक सकता है. आखिर नफा-नुकसान तो उन्हीं का है

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