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तेरे शहर की गलियों में बसती है मोहब्बत की खूशबू, जानिये- कैसे गली बन गई ‘गुलियां’

शहरों में जब विकास की दौड़ और होड़ मची है तब भी ये गलियां यूं ही अपनी सादगी के साथ जिंदगी जी रही हैं। इन संकरी गलियों में अद्भुत से दरवाजों वाले घर…हवादार खिड़कियां और इन पर टंगे टाट के परदे…दिल को छू जाते हैं। भले ही कदमों को ये गलियां संकरी लगती हैं, राह चलते इनमें एक अजीब सी ठंडक महसूस होती है। हर दुकान जहां अपनी यादों की चौपाल सजाए आज भी बैठी वहीं हर मकां मानों एक अहद से पूरी अदब से आज भी स्थिर है। 

गुलियां…ठंडी हवा का झोंका

पुरानी दिल्ली की गली गुलियां। जहां से गुजरते हुए ठंडी हवा का झोंका एक सुखद अनुभूति देता है। दिल को भी एक अलग सी ठंडक और सुकून देता है। हर दुकान और हर मकान एक इबारत है। दरअसल, यहां ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं। इसका नाम गुलाब की वाटिका पर पड़ा। इतिहासकार कहते हैं कि यहां एक गुलाब का बगीचा था। गुलाब को गुल भी कहकर बुलाया जाता है। इस बगीचे की खुशबू से आते जाते लोग सम्मोहित से हो जाते थे। लिहाजा, यह गली ही गली गुलियां के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

गली कबाबियान, करीम वाली

दोनों तरफ दुकानों की लंबी फेहरिस्त, कहीं वाहन तो कहीं कपड़े की दुकानों के बीच गली में एक-दूसरे से बचते बचाते गुजरते लोग। कहीं से खाने की खुशबू आती है तो कहीं साइकिल, रिक्शा चालकों के घंटी बजाने की आवाज। लेकिन यह गली आज भी देशी-विदेशी पर्यटकों की खास पसंद है। गली कबाबियान, जहां स्वाद के शौकीन करीम रेस्तरां का मुगलई जायका चखने के लिए लोग खिंचे चले आते हैं। गली में कई प्रचलित कहानियां भी हैं।

स्थानीय निवासी जमाल अहमद कहते हैं कि करीमुद्दीन ने इसी गली में दुकान खोली थी जो आगे चलकर करीम के नाम से प्रसिद्ध हुई। मसलन, मुगल खाने के शौकीन थे। उनका विशेष रसोइया ही उनके लिए खाना पकाता था। ब्रितानिया हुकूमत के उदय एवं मुगल शासन के अंत के बाद रसोइया (जो अब करीम होटल चलाते हैं) दरबार छोड़ नौकरी की तलाश में इधर उधर भटकने लगा। सन् 1911 में दिल्ली दरबार लगा था।

इसी समय हाजी करीमुद्दीन ने छोटी सी दुकान खोली। उस समय देशविदेश से पर्यटक दिल्ली आए हुए थे। जामा मस्जिद के पास स्थित यह दुकान चल निकली। पहले-पहले मेन्यू में आलू गोश्त और दाल और रोटी थे। सन् 1913 में वर्तमान गली कबाबियान में उन्होंने करीम होटल खोला। आज यह दिल्ली का विश्व प्रसिद्ध होटल है जहां प्रतिदिन लोग मुगलई जायका चखने आते हैं।

एक बार में एक ही शख्स

चांदनी चौक रोड को चावड़ी बाजार से जोड़ने वाली यह सड़क कई मायनों में ऐतिहासिक है। इस सड़क पर होलसेल किताबों का बाजार है। लिहाजा, हर समय युवाओं की भीड़ दिखती है। इसी रोड पर एक संकरी गली ऐसी भी है जो लोगों का ध्यान खींचती है। क्योंकि, गली से एक बार में सिर्फ एक ही शख्स गुजर सकता है। बरसों से यहां रह रहे प्रवीण कहते हैं कि यह चांदनी चौक की अपेक्षाकृत नई सड़क है। जिसे 1857 के बाद अंग्रेजों ने बनाया था।

कूचा पंडित में बंदूक वाली गली का नाम क्यों पड़ा यह बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। कुछ लोग इसे 1857 की क्रांति से जोड़कर देखते हैं तो कुछ लोगों का कहना है कि यहां पहले ऐसे लोग रहते थे जिनके यहां बंदूकें थीं। इस कारण भी इसका नाम बंदूक वाली गली पड़ गया। इतिहासकार आरवी स्मिथ कहते हैं कि इन नामों के पीछे सिद्धांत नहीं सिर्फ कयास लगाए जाते हैं।

बदमाश के नाम से मशहूर

पुरानी दिल्ली में एक गली ऐसी भी है, जिसका नाम एक बदमाश के नाम पर रखा गया है। स्थानीय निवासी जमाल अहमद कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है कि कल्लू नाम का एक बदमाश था। जिसके भय से लोग यहां भयाक्रांत थे। इस वजह से इस गली का नाम ही कल्लू गली पड़ गया।

घोड़े पालने का जुनून

अब चलते हैं करोलबाग की तरफ यहां एक गली है घोड़े वाली। ये गोशाला रोड पर स्थित है। दरअसल यहां 100 साल पहले घोड़े पाले जाते थे। आज भी यहां यह प्रथा चली आ रही है। स्थानीय निवासियों की मानें तो कई परिवारों का तो यह सौ साल से भी पुराना काम है। हालांकि ऐसे परिवारों की संख्या यहां परअब काफी कम बची है। यहां तकरीबन 35 घोड़े-घोड़ियां हैं। इतनी संख्या में ही करोलबाग के सत नगर में भी घोड़े हैं। यहां गली से गुजरते हुए आप आसानी से देख सकते हैं कि यहां किस कदर लोग जुनून के साथ घोड़े पालते हैं। बृहस्पतिवार को यहां से बड़ी संख्या में घोड़े आइटीओ स्थित गुलाब वाटिका के पास मजार तक जाते हैं। जहां इन घोड़ों को सड़क पर दौड़ाया जाता है। एक तरह से इसे दौड़ का ट्रायल कहा जा सकता है। यहां दौड़ में शामिल हुए घोड़ों पर लोग बोली लगाते हैं एवं फिर दिल्ली के किसी अन्य दूसरे इलाके में इनकी रेस होती है।

हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल

उत्तरी जिले के बाड़ा हिंदू राव इलाके में ईश्वरी प्रसाद गली बहुत प्रसिद्ध है। गली में बड़ी संख्या में हिंदू-मुस्लिम परिवार रहते हैं। स्थानीय निवासी गुफरान कहते हैं कि ईश्वरी प्रसाद एक समाज सेवक थे। ऐसा कहा जाता है कि ये दिल के बड़े सच्चे एवं मानवता के उपासक थे। जो भी उनके दर पर जाता था वो खाली नहीं लौटता था। हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रगाढ़ करने में उन्होंने जी जान लगा दिया था। यही वजह है कि गली आज भी उनके नाम से ही जानी जाती है।

आज भी जमीन पर बैठकर खाते हैं यहां

सब्जी मंडी इलाके में स्थित यह गली कभी बाहरी मजदूरों से अटी पड़ी थी। ये मजदूर यहीं ठेले लगाते और रहते थे। लेकिन विगत सालों से ठेले वाली गली की शान में नूर निहारी ने चार चांद लगा दिया है। इसी गली में नूर निहारी रेस्त्रां है। जहां आज भी लोग फर्श पर बैठकर खाना खाते हैं। प्रथम मंजिल पर आपको बड़ी संख्या र्में हिंदू-मुस्लिम बैठकर निहारी का स्वाद चखते दिखाई देते हैं। गुफरान कहते हैं कि यह गली आज भाईचारे की मिसाल बन चुकी है।

श्रद्धा से लेते हैं इसका नाम

बाड़ा हिंदू राव इलाके में ही स्थित यह गली सूफी संत करामतुल्ला के नाम पर है। गली में इनका नाम लोग श्रद्धा से लेते हैं। कहा जाता है कि इन्होंने मानवता का प्रचार प्रसार किया। साथ ही पढ़ने के लिए भी लोगों को प्रेरित करते थे। इसके लिए इन्होंने पुस्तकालय भी बनवाया था। आज इसी गली से ईद मिलाद उल नबी का जुलूस निकलता है। यहीं पर इस जुलूस की तैयारी भी होती है। यहीं पर दिल्ली का मुख्य कार्यालय भी बनाया गया है।

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